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ये जो इक शाख़ है हरी थी अभी | शाही शायरी
ye jo ek shaKH hai hari thi abhi

ग़ज़ल

ये जो इक शाख़ है हरी थी अभी

अकबर मासूम

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ये जो इक शाख़ है हरी थी अभी
उस जगह पर कोई परी थी अभी

सर-बसर रंग-ओ-नूर से लबरेज़
इक सुराही यहाँ धरी थी अभी

ख़ाक कैसी है मेरे पाँव तले
सात रंगों की इक दरी थी अभी

इस ख़राबे में कोई और भी है
आह किस ने यहाँ भरी थी अभी

सानेहा कोई याँ से गुज़रा है
ये फ़ज़ा क्यूँ डरी डरी थी अभी

मैं बसाता था उस के दिल में घर
और क़िस्मत में बे-घरी थी अभी

क्यूँ न करते हम उस की दिलदारी
उस में कुछ ख़ू-ए-दिलबरी थी अभी