ये जो हम से दो चार बैठे हैं
फ़ित्ना-ए-रोज़गार बैठे हैं
तिश्ना-ए-ख़ूँ यही हमारे हैं
ये जो बाँध कटार बैठे हैं
तेरे कूचे में जैसे नक़्श-ए-क़दम
कब से हम ख़ाकसार बैठे हैं
ग़ैर के सर पे तेग़ मत खींचो
हम तुम्हारे 'निसार' बैठे हैं
ग़ज़ल
ये जो हम से दो चार बैठे हैं
मोहम्मद अमान निसार