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ये जब्र भी है बहुत इख़्तियार करते हुए | शाही शायरी
ye jabr bhi hai bahut iKHtiyar karte hue

ग़ज़ल

ये जब्र भी है बहुत इख़्तियार करते हुए

आफ़ताब हुसैन

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ये जब्र भी है बहुत इख़्तियार करते हुए
गुज़र रही है तिरा इंतिज़ार करते हुए

कली खिली तो उसी ख़ुश-सुख़न की याद आई
सबा भी अब के चली सोगवार करते हुए

तिरे बदन के गुलिस्ताँ की याद आती है
ख़ुद अपनी ज़ात के सहरा को पार करते हुए

ये दिल की राह चमकती थी आइने की तरह
गुज़र गया वो उसे भी ग़ुबार करते हुए

ख़ुद अपने हाथ की हैबत से काँप जाता हूँ
कभी कभी किसी दुश्मन पे वार करते हुए