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ये इंतिहा-ए-जुनूँ है कि ग़ैर ही सा लगा | शाही शायरी
ye intiha-e-junun hai ki ghair hi sa laga

ग़ज़ल

ये इंतिहा-ए-जुनूँ है कि ग़ैर ही सा लगा

सादिक़ इंदौरी

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ये इंतिहा-ए-जुनूँ है कि ग़ैर ही सा लगा
जो आश्ना था कभी आज अजनबी सा लगा

वो एक साया जो बेहिस था मुर्दे की मानिंद
क़रीब आया तो इक अक्स-ए-ज़िंदगी सा लगा

ख़ुद अपनी लाश लिए फिर रहा था काँधों पर
वो आदमी तो न था फिर भी आदमी सा लगा

वो इक वजूद जो पाले हुए था साँपों को
नज़र की ज़द में जो आया तो बाँसुरी सा लगा

तमाम उम्र जिसे पैक-ए-दोस्ती समझा
हुआ जो तजरबा वो नक़्श-ए-दुश्मनी सा लगा

वो एक कर्ब-ए-मुसलसल जो दिल जलाता था
तुम आ के पास जो बैठे तो सरख़ुशी सा लगा

ब-ज़ाहिर एक ही चेहरा था सामने लेकिन
कभी किसी का लगा तो कभी किसी का लगा

मिरे शुऊ'र की कम-माइगी कि ऐ 'सादिक़'
यक़ीन भी कभी तस्वीर-ए-वहम ही सा लगा