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ये गर्दिश-ए-हालात ये अफ़्कार-ए-ज़िंदगी | शाही शायरी
ye gardish-e-haalat ye afkar-e-zindagi

ग़ज़ल

ये गर्दिश-ए-हालात ये अफ़्कार-ए-ज़िंदगी

रियासत अली ताज

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ये गर्दिश-ए-हालात ये अफ़्कार-ए-ज़िंदगी
कट जाए जैसे भी हो शब-तार-ए-ज़िंदगी

रखता है उस को कितने मसाइल में घेर कर
आज़ाद हो न जाए गिरफ़्तार-ए-ज़िंदगी

अब और क्या निसार करें तुझ पे ऐ हयात
सब कुछ लुटा चुके सर-ए-बाज़ार-ए-ज़िंदगी

मैं क्या कहूँ कि शर्म सी आती है दोस्तों
जब देखता हूँ पस्ती-ए-किरदार-ए-ज़िंदगी

क्या देखते ही देखते सब कुछ बदल गए
रफ़्तार-ए-ज़िंदगी न वो गुफ़्तार-ए-ज़िंदगी

क्या ख़ाक कम हों 'ताज' ये आलाम-ए-रोज़गार
है ज़िंदगी के साथ ये आज़ार-ए-ज़िंदगी