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ये गर्द-ए-राह ये माहौल ये धुआँ जैसे | शाही शायरी
ye gard-e-rah ye mahaul ye dhuan jaise

ग़ज़ल

ये गर्द-ए-राह ये माहौल ये धुआँ जैसे

फ़ारूक़ मुज़्तर

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ये गर्द-ए-राह ये माहौल ये धुआँ जैसे
हवा के रुख़ पे हो तहरीर दास्ताँ जैसे

हमारा रब्त-ओ-तअ'ल्लुक़ है चंद शामों का
शजर पे ताइर-ए-मौसम का आशियाँ जैसे

अजीब ख़ौफ़ सा है पत्थरों की ज़द पर हूँ
बदन हो अपना कोई काँच का मकाँ जैसे

ये आसमान-ओ-ज़मीं का तिलिस्म कब टूटे
हर इक वजूद मुअल्लक़ हो दरमियाँ जैसे

लब-ओ-दहन से कोई काम ही नहीं लेता
हर एक बात है ना-क़ाबिल-ए-बयाँ जैसे