ये ग़म नहीं है कि अब आह-ए-ना-रसा भी नहीं
ये क्या हुआ कि मिरे लब पे इल्तिजा भी नहीं
सितम है अब भी उमीद-ए-वफ़ा पे जीता है
वो कम-नसीब कि शाइस्ता-ए-जफ़ा भी नहीं
निगाह-ए-नाज़-ए-इबारत है ज़िंदगी जिस से
शरीक-ए-दर्द तो क्या दर्द-आश्ना भी नहीं
समझ रहा हूँ अमानत मता-ए-सब्र को मैं
अगरचे अब निगह-ए-सब्र-आज़मा भी नहीं
वो कारवान-ए-निशात-ओ-तरब कहाँ हमदम
जो ढूँढिए तो कहीं कोई नक़्श-ए-पा भी नहीं
है दिल के वास्ते शम-ए-उमीद-ओ-मशअ'ल-ओ-राह
वो इक निगाह जिसे दिल से वास्ता भी नहीं
कोई तबस्सुम-ए-जाँ-बख़्श को तरसता है
शहीद-ए-इश्वा-ए-रंगीं का ख़ूँ-बहा भी नहीं
ये क्यूँ है शो'ला-ए-बेताब की तरह मुज़्तर
मिरी नज़र कि अभी लुत्फ़-आश्ना भी नहीं
ब-शक्ल-ए-क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन न हो मशहूर
वो इक फ़साना-ए-ग़म तुम ने जो सुना भी नहीं
तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत मिटा गई दिल से
निगाह-ए-नाज़ ने कहने को कुछ कहा भी नहीं
वो कुश्ता-ए-करम-ए-यार क्या करे कि जिसे
ब-ईं तबाही-ए-दिल शिकवा-ए-जफ़ा भी नहीं
ग़ज़ल
ये ग़म नहीं है कि अब आह-ए-ना-रसा भी नहीं
हबीब अहमद सिद्दीक़ी