ये दिल जो मुज़्तरिब रहता बहुत है
कोई इस दश्त में तड़पा बहुत है
कोई इस रात को ढलने से रोके
मिरा क़िस्सा अभी रहता बहुत है
बहुत ही तंग हूँ आँखों के हाथों
ये दरिया आज कल बहता बहुत है
ब-वक़्त-ए-शाम इकट्ठे डूबते हैं
दिल और सूरज में याराना बहुत है
बहुत ही रास है सहरा लहू को
कि सहरा में लहू उगता बहुत है
मुबारक उस को उस के तर निवाले
मुझे सूखा हुआ टुकड़ा बहुत है
बयाज़ इस वास्ते ख़ाली है मेरी
मुझे अफ़्लास ने बेचा बहुत है
बुतों का नाम भी पढ़ता है 'बे-दिल'
ख़ुदा का नाम भी लेता बहुत है
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ग़ज़ल
ये दिल जो मुज़्तरिब रहता बहुत है
बेदिल हैदरी