ये दिल-जमई जिए जब तक जिए जीना उसी का है
पिए जो सैर हो के रात दिन पीना उसी का है
निगह की बर्छियाँ जो सह सके सीना उसी का है
हमारा आप का जीना नहीं जीना उसी का है
तसव्वुर उस रुख़-ए-साफ़ी का रख मद्द-ए-नज़र नादाँ
लगाए मुँह जो आईने को आईना उसी का है
ये बज़्म-ए-मय है याँ कोताह-दस्ती में है महरूमी
जो बढ़ कर ख़ुद उठा ले हाथ में मीना उसी का है
कदर हो या कि साफ़ी सब को पी कर मस्त हो जाए
ये हम रिंदों का पीना कुछ नहीं पीना उसी का है
तमाशा देखना ग़ैरों के घर को फूँक कर कैसा
जो अपनी आग में जल जाए ख़ुद कीना उसी का है
फ़ज़ा-ए-दहर में ये सैर-गह जिस ने बना दी है
तमाशाई जहाँ में दीदा-ए-बीना उसी का है
बसर हो मय-कदे में पंज-शम्बा बैठ कर जिस का
जो मय-नोशी में कर दे सुब्ह आदीना उसी का है
उमीदें जब बढ़ें हद से तिलिस्मी साँप हैं नासेह
जो तोड़े ये तिलिस्म ऐ दोस्त गंजीना उसी का है
मुबारक हैं ये सब रातें जो पीने में कटें रिंदो
गुज़ारे यूँ जो शब हफ़्ते की आदीना उसी का है
ख़ुदा-लगती कहे ऐ 'शाद' जो इस पैर के हक़ में
यक़ीं समझो दुआ-गो भी ये देरीना उसी का है
कुदूरत से दिल अपना साफ़ रक्खो 'शाद' पीरी है
कि जिस को मुँह दिखाना है ये आईना उसी का है
ग़ज़ल
ये दिल-जमई जिए जब तक जिए जीना उसी का है
शाद अज़ीमाबादी