ये दास्ताँ है शहीदों की ख़ूँ-चकीदा है
क़लम भी दस्त-ए-मुअर्रिख़ में सर-बुरीदा है
हयात ऐसी ज़ुलेख़ा कि आज का यूसुफ़
गुनाह-गार है और पैरहन-दरीदा है
लहू जलाओ चराग़ों में रौशनी के लिए
हमारे दौर का सूरज तो शब-गज़ीदा है
दबा दबा सा ये तूफ़ाँ घटी घटी हलचल
हवाओं में कोई पैग़ाम ना-रसीदा है
तमाम मज़हर-ए-फ़ितरत तिरे ग़ज़ल-ख़्वाँ हैं
ये चाँदनी भी तिरे जिस्म का क़सीदा है
न बुझ सकेगी मिरी प्यास आँसुओं से 'असर'
ये अब्र क्यूँ मिरी हालत पे आब-दीदा है
ग़ज़ल
ये दास्ताँ है शहीदों की ख़ूँ-चकीदा है
इज़हार असर