ये बे-दिली है तो कश्ती से यार क्या उतरें
उधर भी कौन है दरिया के पार क्या उतरें
तमाम दौलत-ए-जाँ हार दी मोहब्बत में
जो ज़िंदगी से लिए थे उधार क्या उतरें
हज़ार जाम से टकरा के जाम ख़ाली हों
जो आ गए हैं दिलों में ग़ुबार क्या उतरें
बसान-ए-ख़ाक सर-ए-कू-ए-यार बैठे हैं
अब इस मक़ाम से हम ख़ाकसार क्या उतरें
न इत्र ओ ऊद न जाम ओ सुबू न साज़ ओ सुरूर
फ़क़ीर-ए-शहर के घर शहरयार क्या उतरें
हमें मजाल नहीं है कि बाम तक पहुँचें
उन्हें ये आर सर-ए-रहगुज़ार क्या उतरें
जो ज़ख़्म दाग़ बने हैं वो भर गए थे 'फ़राज़'
जो दाग़ ज़ख़्म बने हैं वो यार क्या उतरें
ग़ज़ल
ये बे-दिली है तो कश्ती से यार क्या उतरें
अहमद फ़राज़