ये बर्फ़-पोश मनाज़िर भी शोला-ख़ू निकले
ये कब हुआ कि धरो पाँव तो लहू निकले
वो जब भी आते हैं सूरज के रथ पे आते हैं
ये इस लिए कि किसी की न आरज़ू निकले
हुजूम इतना हो जिस का न हो शुमार कि जब
मिरी किताब का परचम बना के तू निकले
झपकते देखीं किसी ने न मुंतज़िर आँखें
ये चाक वो हैं जो बेगाना-ए-रफ़ू निकले
नक़ाब ताबिश-ए-जल्वा से आब आब हुआ
कि जैसे धूप में कोई किनार-ए-जू निकले
हुजूम-ए-बादा-कशाँ में भी हम ने देखा है
बहुत से लोग हमेशा ही बा-वज़ू निकले
हलाक होता है कब कोई दूसरों के लिए
किया जो ग़ौर तो हम अपने ही अदू निकले
ये मेरे जज़्ब-ए-निहाँ का है मोजज़ा शायद
कि दिल में झाँक के देखूँ तो तू ही तू निकले
ये है बहार कि चर्बा बहार का 'ख़ावर'
कि धुँद ओढ़ के उश्शाक़-ओ-ख़ूब-रू निकले

ग़ज़ल
ये बर्फ़-पोश मनाज़िर भी शोला-ख़ू निकले
ख़ावर लुधियानवी