EN اردو
ये बात अलग है मिरा क़ातिल भी वही था | शाही शायरी
ye baat alag hai mera qatil bhi wahi tha

ग़ज़ल

ये बात अलग है मिरा क़ातिल भी वही था

ज़फ़र इक़बाल

;

ये बात अलग है मिरा क़ातिल भी वही था
इस शहर में तारीफ़ के क़ाबिल भी वही था

आसाँ था बहुत उस के लिए हर्फ़-ए-मुरव्वत
और मरहला अपने लिए मुश्किल भी वही था

ताबीर थी अपनी भी वही ख़्वाब-ए-सफ़र की
अफ़्साना-ए-महरूमी-ए-मंज़िल भी वही था

इक हाथ में तलवार थी इक हाथ में कश्कोल
ज़ालिम तो वो था ही मिरा साइल भी वही था

हम आप के अपने हैं वो कहता रहा मुझ से
आख़िर सफ़-ए-अग़्यार में शामिल भी वही था

मैं लौट के आया तो गुलिस्तान-ए-हवस में
था गुल भी वही शोर-ए-अनादिल भी वही था

दावे थे 'ज़फ़र' उस को बहुत बा-ख़बरी के
देखा तो मिरे हाल से ग़ाफ़िल भी वही था