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ये बारीक उन की कमर हो गई | शाही शायरी
ye barik unki kamar ho gai

ग़ज़ल

ये बारीक उन की कमर हो गई

अरशद अली ख़ान क़लक़

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ये बारीक उन की कमर हो गई
कि नज़रों में तार-ए-नज़र हो गई

पड़ा दोनों ज़ुल्फ़ों का उन की जो अक्स
नज़ाकत से दोहरी कमर हो गई

गले चढ़ने मस्ती में मस्तों के मुँह
बड़ी दुख़्तर-ए-रज़ ये निडर हो गई

वो अब काट तेग़-ए-निगह का नहीं
कुछ आँखों पर उन की नज़र हो गई

मिरा नक़्द-ए-दिल मार बैठे हसीं
ये दौलत इधर से उधर हो गई

किया उन के मुँह पे जो वस्फ़-ए-दहन
फ़क़त रंजिश इस बात पर हो गई

खुली ख़्वाब-ए-ग़फ़लत से पीरी में आँख
शब-ए-नौजवानी सहर हो गई

लिफ़ाफ़े पर अपना न लिक्खा था नाम
ख़ता इतनी ऐ नामा-बर हो गई

किया हँस के सुन कर सवाल-ए-विसाल
तुम्हें जुरअत अब इस क़दर हो गई

क़दम रखते ही खड़खड़ा मार रीछ
अदू उन की ज़ंजीर-ए-दर हो गई

अजल से कोई कह दे फिर जाए आप
मसीहा को मेरे ख़बर हो गई

न झूटों भी उतना किसी ने कहा
शब-ए-ग़म तिरी बे-सहर हो गई

बुरे या भले हाल गुज़री 'क़लक़'
ग़रज़ हर तरह से बसर हो गई