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ये अजब तुम ने निकाला सोना | शाही शायरी
ye ajab tumne nikala sona

ग़ज़ल

ये अजब तुम ने निकाला सोना

निज़ाम रामपुरी

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ये अजब तुम ने निकाला सोना
रात का जागना दिन का सोना

बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से तो उम्मीद नहीं
साथ होगा कभी उस का सोना

किस क़दर हिज्र में बेहोशी है
जागना भी है हमारा सोना

मुझ से तंग आ के ये बोले शब-ए-वस्ल
ये ही तुम हो तो न होगा सोना

बस दम-ए-सुब्ह सताओ न मुझे
याद वो ज़िद है वो अपना सोना

ले के अंगड़ाई लिपट जाना हाए
हाए वो साथ किसी का सोना

आप करवट तो इधर को लीजिए
जानता हूँ मैं तुम्हारा सोना

सर कहीं हाथ कहीं पाँव कहीं
ये नई धज है निराला सोना

फिर शब-ए-वस्ल हो फिर हो या-रब
जागना मेरा और उन का सोना

आँखें फूटें जो झपकती भी हों
शब-ए-तन्हाई में कैसा सोना

वो खुली आँख वो लब पर है हँसी
हम नहीं मानते ऐसा सोना

रात आँखों में गुज़र जाती है
इन दिनों है ये हमारा सोना

हाए वो वस्ल की शब का आलम
हाए वो पिछले पहर का सोना

क्या लगे आँख जो याद आए 'निज़ाम'
रख के ज़ानू पे सर उस का सोना