ये अब खुला कि कोई भी मंज़र मिरा न था
मैं जिस में रह रहा था वही घर मिरा न था
मैं जिस को एक उम्र सँभाले फिरा किया
मिट्टी बता रही है वो पैकर मिरा न था
मौज-ए-हवा-ए-शहर-ए-मुक़द्दर जवाब दे
दरिया मिरे न थे कि समुंदर मिरा न था
फिर भी तो संगसार किया जा रहा हूँ मैं
कहते हैं नाम तक सर-ए-महज़र मिरा न था
सब लोग अपने अपने क़बीलों के साथ थे
इक मैं ही था कि कोई भी लश्कर मिरा न था
ग़ज़ल
ये अब खुला कि कोई भी मंज़र मिरा न था
इफ़्तिख़ार आरिफ़