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ये आँख तंज़ न हो ज़ख़्म-ए-दिल हरा न लगे | शाही शायरी
ye aankh tanz na ho zaKHm-e-dil hara na lage

ग़ज़ल

ये आँख तंज़ न हो ज़ख़्म-ए-दिल हरा न लगे

सय्यद अमीन अशरफ़

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ये आँख तंज़ न हो ज़ख़्म-ए-दिल हरा न लगे
मुझे क़रार तो हो या उसे हया न लगे

फ़िशार-ए-जाँ हो तो कैफ़ियत-ए-मुकम्मल हो
वो इज़्तिराब तो हो इज़्तिराब सा न लगे

वो रू-ब-रू हो तो आराइश-ए-बयाँ भी न हो
कि मैं कहूँ तो किसी और का कहा न लगे

मुआ'मलात-ए-मोहब्बत मिज़ाज रखते हैं
तबीअ'तें हों जो यकसाँ तो फ़ासला न लगे

ख़िज़ाँ-रसीदा चमन में भी झूलती हो बहार
गुलों से रंग कली से महक जुदा न लगे

यही तो होती है वज़-ए-शगुफ़्तन-ए-महताब
मियान-ए-अब्र हो या आसमाँ खुला न लगे

वही तो दर्द है जो दर्द-ए-मा-सिवा समझे
रिफाक़तें हों तो आलम निगार-ख़ाना लगे

अलम तो ख़ैर अलम है कि पाएदार नहीं
वबाल है जो ख़ुशी भी गुरेज़-पा न लगे

उलझ रही हैं ख़याली उड़ान से आँखें
कहीं नविश्ता-ए-दीवार बे-सदा न लगे