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ये आज आए हैं किस अजनबी से देस में हम | शाही शायरी
ye aaj aae hain kis ajnabi se des mein hum

ग़ज़ल

ये आज आए हैं किस अजनबी से देस में हम

सूफ़ी तबस्सुम

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ये आज आए हैं किस अजनबी से देस में हम
तड़प गई है नज़र चश्म-ए-आश्ना के लिए

वो हाथ जिन से था कल चाक दामन-ए-अफ़्लाक
वो हाथ आज उठाने पड़े दुआ के लिए

ये मैं ने माना जुदाई मिरा मुक़द्दर है
मगर ये बात न मुँह से कहो ख़ुदा के लिए

ये राह-रौ थे कभी राह-ए-ज़िंदगी का सुराग़
ये राह-रौ कि भटकते हैं रहनुमा के लिए