यक़ीं के बाद ये देखा कि फिर गुमाँ टूटे
वो आँधियाँ थीं कि सारे ही साएबाँ टूटे
फ़सील-ए-शहर की डालीं जिन्हों ने बुनियादें
वो हाथ दस्तकें देते हुए यहाँ टूटे
फिर एक बार लड़ाई थी अपनी सूरज से
हम आईनों की तरह फिर यहाँ वहाँ टूटे
हमारे मौसम-ए-दिल को नज़र ये किस की लगी
ये किन हवाओं में रिश्तों के आशियाँ टूटे
न सिर्फ़ ये कि गिरें उन पे बिजलियाँ सीधी
तलाश-ए-हक़ के असीरों पे आसमाँ टूटे
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ग़ज़ल
यक़ीं के बाद ये देखा कि फिर गुमाँ टूटे
नज्मुस्साक़िब