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यक़ीं है जिस पे वही बद-गुमाँ निकलता है | शाही शायरी
yaqin hai jis pe wahi bad-guman nikalta hai

ग़ज़ल

यक़ीं है जिस पे वही बद-गुमाँ निकलता है

खुर्शीद अकबर

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यक़ीं है जिस पे वही बद-गुमाँ निकलता है
मिरी ज़मीन से उस का मकाँ निकलता है

हमारे शहर में होता है सानेहा लेकिन
ख़ता कहाँ की है ग़ुस्सा कहाँ निकलता है

ये और बात कि वो पाक सर-ज़मीं है मगर
वहाँ की ख़ाक से हिन्दोस्ताँ निकलता है

मिरे लिए तो अकेला ख़ुदा बहुत है मगर
तुम्हारे वास्ते सारा जहाँ निकलता है

सियाह रात सितारे बुझाती रहती है
ये मेरा ख़्वाब-सितारा कहाँ निकलता है

सफ़र है धूप समुंदर का और जज़ीरे सा
कहीं कहीं पे कोई साएबाँ निकलता है

मना रहा है वो जश्न-ए-शबाब मक़्तल में
हर एक लाश का चेहरा जवाँ निकलता है

तुम्हारे घर में अभी कितनी रौशनी होगी
हमारे घर से अभी तक धुआँ निकलता है

कहा किसी ने सियह-पोश हो गया 'ख़ुर्शीद'
सुना किसी ने दम-ए-कहकशाँ निकलता है