यक़ीं गुम हो चुका हम से गुमाँ महफ़ूज़ रक्खा है
ख़याल-ओ-ख़्वाब सा रंगीं जहाँ महफ़ूज़ रक्खा है
हुआ मिस्मार सब लेकिन जहाँ तुम घर बनाते थे
वो दिल का एक टुकड़ा जान-ए-जाँ महफ़ूज़ रक्खा है
शिकस्ता हो चुके जल बुझ चुके तारीख़ शाहिद है
फ़ज़ाओं में मगर अब तक धुआँ महफ़ूज़ रक्खा है
ज़मीं पर जो भी मुमकिन था वो सब कुछ कर लिया यारब
है हम से दूर तेरा आसमाँ महफ़ूज़ रक्खा है
नहीं मुमकिन मगर यूँ भी हुआ दिल के समुंदर में
हुई ग़र्क़ाब कश्ती बादबाँ महफ़ूज़ रक्खा है

ग़ज़ल
यक़ीं गुम हो चुका हम से गुमाँ महफ़ूज़ रक्खा है
मरग़ूब अली