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यकसाँ है धुआँ जलते ख़राबे की महक तक | शाही शायरी
yaksan hai dhuan jalte KHarabe ki mahak tak

ग़ज़ल

यकसाँ है धुआँ जलते ख़राबे की महक तक

मुसव्विर सब्ज़वारी

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यकसाँ है धुआँ जलते ख़राबे की महक तक
सन्नाटे का घर से दिया सुनसान सड़क तक

पहले ही कहा था मिरे दामन से परे रह
आ ही गया तू भी उन्हीं शो'लों की लपक तक

अब मैं हूँ फ़क़त और कोई हाँफता सहरा
आई थी मिरे साथ उन अश्कों की कुमक तक

दो कश्तियाँ काग़ज़ की बहा लें चलो हम तुम
फिर तो हमें मिलना नहीं ख़्वाबों की पलक तक

इतनी तो सज़ा सख़्त न आती हुई रुत दे
रुख़्सत हो जो बीते हुए मौसम की कसक तक

दीवार ही निकली पस-ए-दीवार फ़ुसूँ रंग
कोहरा ही बिखरता मिला चेहरों की धनक तक

इन्दर से सुलगते हो मुसव्विर जो खंडर से
खो आए हो जा कर कहाँ आँखों की चमक तक