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यक निगह सें लिया है वो गुलफ़ाम | शाही शायरी
yak nigah sen liya hai wo gulfam

ग़ज़ल

यक निगह सें लिया है वो गुलफ़ाम

सिराज औरंगाबादी

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यक निगह सें लिया है वो गुलफ़ाम
क्या ख़िरद क्या शकेब क्या आराम

हक़ में उश्शाक़ के क़यामत है
क्या करम क्या इताब क्या दुश्नाम

मुझ कूँ गुल-गश्त-ए-बाग़-ए-ज़िंदाँ है
सब्ज़ा ज़ंजीर-ओ-शाख़-ए-सुम्बुल-ओ-दाम

मय-कशी कूँ तिरी गुलिस्ताँ में
सर्व-ए-मीना है दौर-ए-नर्गिस-ए-जाम

वक़्त है अब नमाज़-ए-मग़रिब का
चाँद रुख़ लब शफ़क़ है गेसू शाम

आरज़ू है जो मंज़िल-ए-मक़्सूद
तर्क-ए-मतलब है मुद्दा-ए-तमाम

सिद्क़-ए-दिल सें 'सिराज' बाँधा है
काबा-ए-कू-ए-यार का एहराम