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यहीं कहीं पे कभी शोला-कार मैं भी था | शाही शायरी
yahin kahin pe kabhi shola-kar main bhi tha

ग़ज़ल

यहीं कहीं पे कभी शोला-कार मैं भी था

साक़ी फ़ारुक़ी

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यहीं कहीं पे कभी शोला-कार मैं भी था
शब-ए-सियाह में इक चश्म-ए-मार मैं भी था

बहुत से लोग थे सुक़रात-कार ओ ईसा-दम
उसी हुजूम में इक बे-शुमार मैं भी था

ये चाँद तारे मिरे गिर्द रक़्स करते थे
लिखा हुआ है ज़मीं का मदार मैं भी था

सुना है ज़िंदा हूँ हिर्स-ओ-हवस का बंदा हूँ
हज़ार पहले मोहब्बत-गुज़ार मैं भी था

जो मेरे अश्क थे बर्ग-ए-ख़िज़ाँ की तरह गिरे
बरस के खुल गया अब्र-ए-बहार मैं भी था

वो बेल बूटें बनाए कि देखते रहे लोग
ये हाथ काट लिए मीना-कार मैं भी था

मुझे समझने की कोशिश न की मोहब्बत ने
ये और बात ज़रा पेचदार मैं भी था

सुपुर्दगी में न देखी थी तमकनत ऐसी
ये रंज है कि अना का शिकार मैं भी था

मुझे अज़ीज़ था हर डूबता हुआ मंज़र
ग़रज़ कि एक ज़वाल-आश्कार मैं भी था

मुझे गुनाह में अपना सुराग़ मिलता है
वगरना पारसा-ओ-दीन-दार मैं भी था

बराए दर्स अब अतफ़ाल-ए-शहर आते हैं
हराम-कार-ए-ग़िना-ओ-क़िमार मैं भी था

मैं क्या भला था ये दुनिया अगर कमीनी थी
दर-ए-कमीनगी प चोबदार मैं भी था

वो आसमानी बला लौट कर नहीं आई
इसी ज़मीन पर उम्मीद-वार मैं भी था