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यही था वक़्फ़ तिरी महफ़िल-ए-तरब के लिए | शाही शायरी
yahi tha waqf teri mahfil-e-tarab ke liye

ग़ज़ल

यही था वक़्फ़ तिरी महफ़िल-ए-तरब के लिए

सय्यद आबिद अली आबिद

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यही था वक़्फ़ तिरी महफ़िल-ए-तरब के लिए
चराग़-ए-दिल कि सुलगता है आज सब के लिए

कभी मैं जुरअत-ए-इज़हार-ए-मुद्दआ तो करूँ
कोई जवाज़ तो हो लुतफ़-ए-बेसबब के लिए

उफ़ुक़ से चाँद की चम्पा-कली उभरती है
सजाए जाते हैं ज़ेवर निगार-ए-शब के लिए

तिरे गदा ने भी साग़र का नुक़रई आँचल
कहीं से माँग लिया दुख़तर-ए-एनब के लिए

तमाम उम्र ब-फ़ैज़-ए-निगाह-ए-लाला-रुख़ाँ
सनद रहा हूँ इशारात-ए-चश्म-ओ-लब के लिए

चमन से फूल के धोके में चुन लिए शोले
कफ़-ए-वफ़ा के लिए दामन-ए-तलब के लिए

कहीं जो पुर्सिश-ए-अहवाल पर वो माइल हों
कि हम ने दिल को सँभाला हुआ है जब के लिए

मुझे ख़बर है बहुत से मता-ए-ज़ौक़-ए-नज़र
दुकान-ए-काकुल-ओ-रुख़्सार-ओ-चश्म-ओ-लब के लिए

सितारा सुब्ह का रौशन था शाम से 'आबिद'
यही थी मौत हरीफ़ान-ए-बज़्म-ए-शब के लिए