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यही सफ़र की तमन्ना यही थकन की पुकार | शाही शायरी
yahi safar ki tamanna yahi thakan ki pukar

ग़ज़ल

यही सफ़र की तमन्ना यही थकन की पुकार

शाज़ तमकनत

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यही सफ़र की तमन्ना यही थकन की पुकार
खड़े हुए हैं बहुत दूर तक घने अश्जार

नहीं ये फ़िक्र कि सर फोड़ने कहाँ जाएँ
बहुत बुलंद है अपने वजूद की दीवार

दराज़-क़द ब-अदा-ए-ख़िराम क्या कहना
तमाम अहल-ए-जहाँ के लिए है दर्स-ए-वक़ार

ये दौर वो है कि सब नीम-जाँ नज़र आए
कि रक़्स में है अनाड़ी के हाथ में तलवार

बदलती रुत है रग-ए-सब्ज़ा में नुमू कम कम
कली कली पे तिरा नाम लिख रही है बहार

शिकस्ता बुत हैं जबीं ज़ख़्म ज़ख़्म बुत-गर की
सिरहाने तेशा के लर्ज़ीदा है कोई झंकार

दिखाई दे तो वो बस ख़्वाब में दिखाई दे
मिरा ये हाल कि मैं मुद्दतों से हूँ बेदार

वो लोग जो तुझे हर रोज़ देखते होंगे
उन्हें ख़बर नहीं क्या शय है हसरत-ए-दीदार

ज़े-फ़र्क़-ता-ब-क़दम रूप-रंग की झंकार
तमाम मेहर-ओ-मोहब्बत तमाम बोस-ओ-कनार

तरह तरह से कोई नाम 'शाज़' लिखता था
हथेलियों पे हिनाई हुरूफ़ थे गुल-कार