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यही नहीं कि वो बे-ताब-ओ-बे-क़रार गया | शाही शायरी
yahi nahin ki wo be-tab-o-be-qarar gaya

ग़ज़ल

यही नहीं कि वो बे-ताब-ओ-बे-क़रार गया

मुशफ़िक़ ख़्वाजा

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यही नहीं कि वो बे-ताब-ओ-बे-क़रार गया
मिरी रगों में जो इक ज़हर सा उतार गया

बुझे हुए दर-ओ-दीवार देखने वालो
उसे भी देखो जो इक उम्र याँ गुज़ार गया

वफ़ा के बाब में इस की तो कुछ कमी न हुई
मैं आप अपनी ख़ुशी से ये बाज़ी हार गया

हवा-ए-सर्द का झोंका भी कितना ज़ालिम था
ख़याल-ओ-ख़्वाब के सब पैरहन उतार गया