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यही नहीं कि निगाहों को अश्क-बार किया | शाही शायरी
yahi nahin ki nigahon ko ashk-bar kiya

ग़ज़ल

यही नहीं कि निगाहों को अश्क-बार किया

इक़बाल कैफ़ी

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यही नहीं कि निगाहों को अश्क-बार किया
तिरे फ़िराक़ में दामन भी तार तार किया

मता-ए-इश्क़ यही हासिल-ए-हयात यही
ख़ुलूस नज़र किया और दिल निसार किया

यही बस एक ख़ता वज्ह-ए-बे-क़रारी थी
जो रेग-ज़ार में बाराँ का इंतिज़ार किया

ज़र-ए-बयाँ से मुज़य्यन नुक़ूश-ए-हुस्न किए
मता-ए-हर्फ़ को मिदहत-सरा-ए-यार किया

पलट के आ गए नाले जो आसमानों से
ख़ुदा को छोड़ दिया कुफ़्र इख़्तियार किया