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यही नहीं कि मिरा घर बदलता जाता है | शाही शायरी
yahi nahin ki mera ghar badalta jata hai

ग़ज़ल

यही नहीं कि मिरा घर बदलता जाता है

असअ'द बदायुनी

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यही नहीं कि मिरा घर बदलता जाता है
मिज़ाज-ए-शहर भी बदलता जाता है

रुतें क़दीम तवातुर से आती जाती हैं
दरख़्त पत्तों के ज़ेवर बदलता जाता है

उफ़ुक़ पे क्यूँ नहीं रुकती कोई किरन पल भर
ये कौन तेज़ी से मंज़र बदलता जाता है

ग़ुबार-ए-वक़्त में सब रंग घुलते जाते हैं
ज़माना कितने ही तेवर बदलता जाता है

छिड़ी हुई है अज़ल से दिल ओ निगाह में जंग
महाज़ एक है लश्कर बदलता जाता है

ये किस का हाथ है जो बे-चराग़ रातों में
फ़सील-ए-शहर के पत्थर बदलता जाता है

परिंद पेड़ से परवाज़ करते जाते हैं
कि बस्तियों का मुक़द्दर बदलता जाता है