यही नहीं कि फ़क़त प्यार करने आए हैं
हम एक उम्र का तावान भरने आए हैं
वो एक रंग मुकम्मल हो जिस से तेरा वजूद
वो रंग हम तिरे ख़ाके में भरने आए हैं
ठिठुर न जाएँ हम इस इज्ज़ की बुलंदी पर
हम अपनी सत्ह से नीचे उतरने आए हैं
ये बूँद ख़ून की लौह-ए-किताब-ए-रुख़ के लिए
ये तिल सर-ए-लब-ओ-रुख़्सार धरने आए हैं
लगा रहे हैं अभी ख़ेमे ग़म की वादी में
हम इस पहाड़ से दामन को भरने आए हैं
तिरे लबों को मिली है शगुफ़्तगी गुल की
हमारी आँख के हिस्से में झरने आए हैं
'निसार' बंद-ए-क़बा खोलना मुहाल न था
सो हम जमाल-ए-क़बा बंद करने आए हैं
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ग़ज़ल
यही नहीं कि फ़क़त प्यार करने आए हैं
आग़ा निसार