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यही नहीं कि बस ग़म-ए-सफ़र हमारे साथ है | शाही शायरी
yahi nahin ki bas gham-e-safar hamare sath hai

ग़ज़ल

यही नहीं कि बस ग़म-ए-सफ़र हमारे साथ है

मुजीब ख़ैराबादी

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यही नहीं कि बस ग़म-ए-सफ़र हमारे साथ है
मिज़ाज-ए-शबनम ओ दिल-ए-शरर हमारे साथ है

उन्हें कुलाह-ए-ख़्वाजगी पे नाज़ है हुआ करे
ये अंजुमन की अंजुमन मगर हमारे साथ है

शब-ए-सफ़र का ग़म ही क्या शब-ए-सफ़र है मुख़्तसर
अभी तो एक दल सा राहबर हमारे साथ है

तुम्हारे दामनों में संग-हा-ए-नौ-ब-नौ सही
ख़याल-ए-इंदिमाल-ए-ज़ख़्म-ए-सर हमारे साथ है

वो लोग और उन की वो दुकाँ तो बढ़ गई मगर
सितमगरों की तब्अ' शीशागर हमारे साथ है

जिसे क़दम क़दम पे ख़ुद ही हाजत-ए-दवा न हो
बताओ कोई ऐसा चारा-गर हमारे साथ है

नहीं अगर तुफ़ंग ओ तीर ओ तेशा ओ तबर तो क्या
दिल-ए-जवाँ जुनून-ए-मो'तबर हमारे साथ है