यही मौक़ा है ज़माने से गुज़र जाने का
क्यूँ अजल क्या किया सामाँ मिरे मर जाने का
क्या कहूँ नज़्अ' में मैं अपनी ख़मोशी का सबब
रंज है वक़्त के बे-कार गुज़र जाने का
हस्ब-ए-मामूल चढ़ाया नहीं नासेह कोई जाम
ये सबब भी है मिरे मुँह के उतर जाने का
तुझ से रुख़्सत है मिरी जल्द बस ऐ पीर-ए-मुग़ाँ
मुंतज़िर हूँ फ़क़त इस जाम के भर जाने का
मोतियों का था ख़ज़ाना मिरी चश्म-ए-तर में
ग़म है दिल को इन्हीं दानों के बिखर जाने का
ले चली मौत ब-सद-शौक़ हमें साथ अपने
न हुआ जब कोई सामाँ तिरे घर जाने का
तार हों आँसुओं के आह के हरकारे हों
सिलसिला कोई तो उन तक हो ख़बर जाने का
ना-उमीदी हमें पहुँचाती है पस्ती की तरफ़
यही ज़ीना तो है कोठे से उतर जाने का
दिन-ब-दिन पाँव की ताक़त में कमी होने लगी
'शाद' सामाँ करो इस दश्त से घर जाने का
ग़ज़ल
यही मौक़ा है ज़माने से गुज़र जाने का
शाद अज़ीमाबादी