यही है इश्क़ कि सर दो मगर दुहाई न दो
वफ़ूर-ए-जज़्ब से टूटू मगर सुनाई न दो
ज़मीं से एक तअ'ल्लुक़ है ना-गुज़ीर मगर
जो हो सके तो इसे रंग-ए-आश्नाई न दो
ये दौर वो है कि बैठे रहो चराग़-तले
सभी को बज़्म में देखो मगर दिखाई न दो
शहनशही भी जो दिल के एवज़ मिले तो न लो
फ़राज़-ए-कोह के बदले भी ये तराई न दो
जवाब-ए-तोहमत-ए-अहल-ए-ज़माना में 'ख़ुर्शीद'
यही बहुत है कि लब सी रखो सफ़ाई न दो
ग़ज़ल
यही है इश्क़ कि सर दो मगर दुहाई न दो
ख़ुर्शीद रिज़वी