यही बहुत है कि अहबाब पूछ लेते हैं
मरे उजड़ने के अस्बाब पूछ लेते हैं
मैं पूछ लेता हूँ यारों से रत-जगों का सबब
मगर वो मुझ से मिरे ख़्वाब पूछ लेते हैं
इसी गली से जहाँ आफ़्ताब उभरा है
कहाँ गया है वो महताब, पूछ लेते हैं
अब आ गए हैं तो इस दश्त के फ़क़ीरों से
रुमूज़-ए-मिम्बर-ओ-मेहराब पूछ लेते हैं
किसी को जा के बताते हैं हाल-ए-दिल 'नासिक'
किसी से हिज्र के आदाब पूछ लेते हैं
ग़ज़ल
यही बहुत है कि अहबाब पूछ लेते हैं
अतहर नासिक