यहाँ तो फिर वही दीवार-ओ-दर निकल आए
किधर को यार चले थे किधर निकल आए
कहाँ का पा-ए-वफ़ा और कहाँ का दश्त-ए-तलब
कि अब तो रस्ते कई मुख़्तसर निकल आए
हुआ रफ़ीक़ न बेगार-ए-शौक़ में कोई
मक़ाम-ए-ज़र पे कई मो'तबर निकल आए
गुरेज़ करते हैं साए से भी मिरे अहबाब
कहीं इधर भी न ये आशुफ़्ता-सर निकल आए
हुआ न कोई भी पुर्सान-ए-हाल ज़िंदों का
मरे हुओं के कई नौहागर निकल आए
रहे ज़रा दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता पर नज़र 'अंजुम'
उसी सदफ़ से अजब क्या गुहर निकल आए
ग़ज़ल
यहाँ तो फिर वही दीवार-ओ-दर निकल आए
अंजुम रूमानी