यहाँ रहने में दुश्वारी बहुत है
यही मिट्टी मगर प्यारी बहुत है
हवस से मिलते-जुलते इश्क़ में अब
जुनूँ कम है अदाकारी बहुत है
चलो अब इश्क़ का ही खेल खेलें
इधर कुछ दिन से बेकारी बहुत है
मैं साए को उठाना चाहता हूँ
उठा लेता मगर भारी बहुत है
इधर भी ख़ामुशी का शोर बरपा
उधर सुनते हैं तय्यारी बहुत है
ज़बाँ से सच निकल जाता है अक्सर
अभी हम में ये बीमारी बहुत है
ग़ज़ल
यहाँ रहने में दुश्वारी बहुत है
शोएब निज़ाम