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यहाँ पर मिरा कुछ भी था ही नहीं | शाही शायरी
yahan par mera kuchh bhi tha hi nahin

ग़ज़ल

यहाँ पर मिरा कुछ भी था ही नहीं

निशांत श्रीवास्तव नायाब

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यहाँ पर मिरा कुछ भी था ही नहीं
सो घाटा ज़रा भी हुआ ही नहीं

रगों तक में ख़ुशबू तिरी जज़्ब की
हवा पे भरोसा किया ही नहीं

मिरे दिल की हालत जो थी वो रही
ये पौदा शजर तो हुआ ही नहीं

वो क्या माजरा था खुला ही नहीं
निशाने पे पत्थर लगा ही नहीं

कहानी दिए की बहुत ख़ूब है
मगर इस में ज़िक्र-ए-हवा ही नहीं

जवाबों के चेहरों पे हैं उलझनें
सवालों का अब तक पता ही नहीं

सफ़र का मैं आग़ाज़ कैसे करूँ
मिरे हक़ में कोई दुआ ही नहीं