EN اردو
यहाँ किसे हँसने की फ़ुर्सत रक्खी है | शाही शायरी
yahan kise hansne ki fursat rakkhi hai

ग़ज़ल

यहाँ किसे हँसने की फ़ुर्सत रक्खी है

परवेज़ अख़्तर

;

यहाँ किसे हँसने की फ़ुर्सत रक्खी है
एक से निमटो दूसरी आफ़त रक्खी है

हर जानिब इक खेल है आपा-धापी का
मंज़र मंज़र कैसी वहशत रक्खी है

सोचूँ तो बाज़ार भी छोटा लगता है
घर के अंदर इतनी ज़रूरत रक्खी है

तेरे दिल को प्यार से माला-माल करे
फूल के अंदर जिस ने निकहत रक्खी है

एक के दुख में सारे रोया करते हैं
घर में अभी अज्दाद की दौलत रक्खी है