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यहाँ काँप जाते हैं फ़लसफ़े ये बड़ा अजीब मक़ाम है | शाही शायरी
yahan kanp jate hain falsafe ye baDa ajib maqam hai

ग़ज़ल

यहाँ काँप जाते हैं फ़लसफ़े ये बड़ा अजीब मक़ाम है

अनवर मिर्ज़ापुरी

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यहाँ काँप जाते हैं फ़लसफ़े ये बड़ा अजीब मक़ाम है
जिसे अपना अपना ख़ुदा कहें उसे सज्दा करना हराम है

मिरी बे-रुख़ी से न हो ख़फ़ा मिरे नासेहा मुझे ये बता
जो नज़र से पीता हूँ मैं यहाँ वो शराब कैसे हराम है

जो पतिंगा लौ पे फ़िदा हुआ तो तड़प के शम्अ ने ये कहा
इसे मेरे दर्द से क्या ग़रज़ ये तो रौशनी का ग़ुलाम है

शब-ए-इंतिज़ार में बार-हा मुझे 'अनवर' ऐसा गुमाँ हुआ
जिसे मौत कहता है ये जहाँ वो किसी के वादे का नाम है