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यहाँ जज़ा-ओ-सज़ा का कुछ ए'तिबार नहीं | शाही शायरी
yahan jaza-o-saza ka kuchh etibar nahin

ग़ज़ल

यहाँ जज़ा-ओ-सज़ा का कुछ ए'तिबार नहीं

शौकत थानवी

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यहाँ जज़ा-ओ-सज़ा का कुछ ए'तिबार नहीं
फ़रेब-ए-हद्द-ए-नज़र है उरूज-ए-दार नहीं

निगाह-ए-लुत्फ़ में ग़म का मिरे शुमार नहीं
ये ए'तिबार ब-अंदाज़-ए-ए'तिबार नहीं

सुकून मौत ही अंजाम-ए-इज़्तिराब-ए-फ़िराक़
जिसे क़रार न आए वो बे-क़रार नहीं

ख़बर नहीं कि खिले कितने फूल गुलशन में
कि आज जैब-ओ-गरेबाँ में एक तार नहीं

ख़ुदा के नाम पे दिल को सिपुर्द-ए-इश्क़ किया
अब इस के बा'द उमीद-ए-मआल-ए-कार नहीं

दो आतिशा न सही दर्द ही सही साक़ी
जो उन में फ़र्क़ करे कुछ वो बादा-ख़्वार नहीं

अब उस को आ के बुझाए कोई तो हम जानें
ये दाग़-ए-दिल है चराग़-ए-सर-ए-मज़ार नहीं

रहीन-ए-ऐश है ख़ू-कर्दा-ए-तमन्ना है
वो बादा-ख़्वार जो सरगश्ता-ए-ख़ुमार नहीं

ज़माना घूम रहा है मिरी निगाहों में
मुझे क़रार नहीं तो कहीं क़रार नहीं

न जा न जा कभी उस गुलशन-ए-तरब में न जा
जुनूँ का नाम जहाँ मौसम-ए-बहार नहीं

ज़माना मेरी तबाही पे जान दे देता
मैं ख़ुद ही अपनी तबाही का सोगवार नहीं

करिश्मा-साज़ी-ए-नैरंग-ए-हुस्न क्या कहिए
हज़ारों अहद हैं और कोई उस्तुवार नहीं

शब-ए-फ़िराक़ में अंदाज़-ए-हश्र है 'शौकत'
अब इस के बा'द क़यामत का इंतिज़ार नहीं