यास की मंज़िल में तन्हाई थी और कुछ भी नहीं
जुरअत-ए-पर्वाज़ शर्माई थी और कुछ भी नहीं
आज मयख़ाने में इज़्न-ए-आम था साक़ी तिरे
इस लिए दुनिया इधर आई थी और कुछ भी नहीं
आज मेरी कश्ती-ए-तूफ़ाँ-शिकन ने दोस्तो
डूब जाने की क़सम खाई थी और कुछ भी नहीं
लोग जिस को नाग-ओ-नागिन का फ़ुसूँ कहने लगे
तुम ने शायद ज़ुल्फ़ लहराई थी और कुछ भी नहीं
नूह की कश्ती सलामत रह गई हम बच गए
ज़ात-ए-हक़ की रहम-फ़रमाई थी और कुछ भी नहीं
मंज़िल-ए-सब्र-ओ-रज़ा में जब कभी रक्खा क़दम
हाथ काँपे रूह थर्राई थी और कुछ भी नहीं
दोस्तों को जब सुनाया 'ज़ब्त' ने अपना कलाम
इक सदा-ए-मर्हबा आई थी और कुछ भी नहीं
ग़ज़ल
यास की मंज़िल में तन्हाई थी और कुछ भी नहीं
शिव चरन दास गोयल ज़ब्त