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यारब दिल-ओ-नज़र पे मुसल्लत कभी न हो | शाही शायरी
yarab dil-o-nazar pe musallat kabhi na ho

ग़ज़ल

यारब दिल-ओ-नज़र पे मुसल्लत कभी न हो

गौहर उस्मानी

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यारब दिल-ओ-नज़र पे मुसल्लत कभी न हो
वो बे-ख़ुदी कि जिस में शुऊ'र-ए-ख़ुदी न हो

इतना न दूर जाओ हद-ए-इख़्तिलाफ़ से
मुमकिन है फिर वहाँ से कभी वापसी न हो

दिल में ख़ुलूस हो तो हो इक मुस्तक़िल ख़ुलूस
वो क्या ख़ुलूस है जो कभी हो कभी न हो

तर्क-ए-तअल्लुक़ात की इक शर्त ये भी थी
दिल टूट जाए और कोई आवाज़ भी न हो

जी चाहता है फूलों से कुछ गुफ़्तुगू करूँ
फिर सोचता हूँ बाद-ए-सबा देखती न हो

'गौहर' दिल-ओ-निगाह में इक फ़स्ल तो रहे
लेकिन दिल-ओ-नज़र का तसादुम कभी न हो