यार के नर्गिस-ए-बीमार का बीमार रहा
यही आज़ार मिरे दरपय-ए-आज़ार रहा
उम्र-भर शेफ़्ता-ए-चश्म-ओ-लब-ए-यार रहा
कभी सूरत रही मुझ को कभी बीमार रहा
दिल को मेरे न ज़रा रंज शब-ए-तार रहा
शम-ए-अफ़रोज़ ख़याल-ए-रुख़-ओ-कद्दार रहा
लब पे दिल-सोख़्तों के नाला शरर-बार रहा
सर्द-मेहरी का तिरे गर्म ये बाज़ार रहा
मैं फ़िदा रुख़ पे वो ज़ुल्फ़ों का गिरफ़्तार रहा
दिल को तुझ से न मुझे दिल से सरोकार रहा
ख़ुद-फ़रोशी सर-ए-बाज़ार जो लाई उन को
मिस्र में एक न यूसुफ़ का ख़रीदार रहा
मेरे मरने से फँसा दाम-ए-ग़म-ओ-रंज में वो
मैं रिहा हो गया सय्याद गिरफ़्तार रहा
बुत-परस्ती में भी भूली न मुझे याद-ए-ख़ुदा
हाथ में सुब्हा गले में मिरे ज़ुन्नार रहा
लाख असीरों को किया तुम ने रहा ज़िंदाँ से
एक महरूम-ए-इनायत ये गुनहगार रहा
तेरी ऐ वहशत-ए-दिल दस्त-दराज़ी न गई
बा'द-ए-मुर्दन भी कफ़न में न कोई तार रहा
रौज़न-ए-क़ब्र से झाँके जो वो ईसा आया
मर गए पर भी हमें दीद का आज़ार रहा
चूम लीं नश्शे में आज उन की नशीली आँखें
ऐन बे-होशी-ए-लज़्ज़त में भी होशियार रहा
रुख़ से अपने जो नक़ाब उस ने उठाया तो क्या
पर्दा-ए-शर्म-ओ-हया माने-ए-दीदार रहा
दश्त-ए-वहशत में रहे क़ैस से लाखों हमराह
सारे दीवानों का मैं क़ाफ़िला-सालार रहा
बे-ख़ता कौन दिल-आज़ार ख़फ़ा था तुम से
उम्र-भर तू जो 'क़लक़' ज़ीस्त से बेज़ार रहा
ग़ज़ल
यार के नर्गिस-ए-बीमार का बीमार रहा
अरशद अली ख़ान क़लक़