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यार इब्तिदा-ए-इश्क़ से बे-ज़ार ही रहा | शाही शायरी
yar ibtida-e-ishq se be-zar hi raha

ग़ज़ल

यार इब्तिदा-ए-इश्क़ से बे-ज़ार ही रहा

हसरत अज़ीमाबादी

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यार इब्तिदा-ए-इश्क़ से बे-ज़ार ही रहा
बेदर्द दिल के दर पिए आज़ार ही रहा

जिस दिन से दोस्त रखता हूँ उस को हिजाब-ए-हुस्न
अपना हमेशा दुश्मन-ए-दीदार ही रहा

ये इश्क़-ए-पर्दा-दर न छुपाया छुपा दरेग़
सीता हमेशा मैं लब-ए-इज़हार ही रहा

क़ैद-ए-फ़रंग-ए-ज़ुल्फ़ न काफ़िर को हो नसीब
जो वाँ फँसा हमेशा गिरफ़्तार ही रहा

जाँ-बख़्श था जहाँ का मसीहा-ए-लब तिरा
लेकिन मैं उस के दौर में बीमार ही रहा

गर क़त्ल-ए-बे-गुनाह था मंज़ूर यार को
मरने पे अपने मैं भी तो तय्यार ही रहा

दौरान-ए-लुत्फ़ मैं तिरे ऐ मुबहविस-नवाज़
महरूम वस्ल से ये गुनहगार ही रहा

'हसरत' हमेशा उस की शब-ए-इंतिज़ार में
जूँ ताला-ए-रक़ीब मैं बेदार ही रहा