याँ कुफ़्र से ग़रज़ है न इस्लाम से ग़रज़
बस है अगर ग़रज़ तो तिरे नाम से ग़रज़
ऐश-ओ-नशात-ए-ज़ीस्त है सब आप से हुसूल
याँ शीशे से ग़रज़ है न है जाम से ग़रज़
तुम पास हो अगर तो बराबर है रात दिन
कुछ सुब्ह से ग़रज़ न हमें शाम से ग़रज़
दिल फेर दीजिए न बिगड़ए हुज़ूर आप
याँ बोसे से ग़रज़ है न दुश्नाम से ग़रज़
पड़ रहने भर को दीजिए दर पर हमें जगह
राहत से कुछ ग़रज़ है न आराम से ग़रज़
आँखें दिला मिलीं हमें रोने के वास्ते
नाकामियों से काम न है काम से ग़रज़
'अंजुम' का शेर कहने से बिकना मुराद है
तहसीं से कुछ ग़रज़ है न इल्ज़ाम से ग़रज़
ग़ज़ल
याँ कुफ़्र से ग़रज़ है न इस्लाम से ग़रज़
मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम