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याँ कुफ़्र से ग़रज़ है न इस्लाम से ग़रज़ | शाही शायरी
yan kufr se gharaz hai na islam se gharaz

ग़ज़ल

याँ कुफ़्र से ग़रज़ है न इस्लाम से ग़रज़

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम

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याँ कुफ़्र से ग़रज़ है न इस्लाम से ग़रज़
बस है अगर ग़रज़ तो तिरे नाम से ग़रज़

ऐश-ओ-नशात-ए-ज़ीस्त है सब आप से हुसूल
याँ शीशे से ग़रज़ है न है जाम से ग़रज़

तुम पास हो अगर तो बराबर है रात दिन
कुछ सुब्ह से ग़रज़ न हमें शाम से ग़रज़

दिल फेर दीजिए न बिगड़ए हुज़ूर आप
याँ बोसे से ग़रज़ है न दुश्नाम से ग़रज़

पड़ रहने भर को दीजिए दर पर हमें जगह
राहत से कुछ ग़रज़ है न आराम से ग़रज़

आँखें दिला मिलीं हमें रोने के वास्ते
नाकामियों से काम न है काम से ग़रज़

'अंजुम' का शेर कहने से बिकना मुराद है
तहसीं से कुछ ग़रज़ है न इल्ज़ाम से ग़रज़