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यादों की तज्सीम पे मेहनत होती है | शाही शायरी
yaadon ki tajsim pe mehnat hoti hai

ग़ज़ल

यादों की तज्सीम पे मेहनत होती है

अहमद शहरयार

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यादों की तज्सीम पे मेहनत होती है
बेकारी भरपूर मशक़्क़त होती है

ऐसा ख़ाली और इतना गुंजान आबाद
आईने को देख के हैरत होती है

दीवारों का अपना सहरा होता है
और कमरों की अपनी वहशत होती है

उस को याद करो शिद्दत से याद करो
इस से तन्हाई में बरकत होती है

बचपन जौबन और बुढ़ापा और फिर मौत
सब चलते रहने की आदत होती है

जीना तो बस लफ़्ज़ है इक बे-म'अनी लफ़्ज़
मौत से पहले मौत की फ़ुर्सत होती है

ऐसी आज़ादी अब और कहाँ होगी
इश्क़ में सब करने की इजाज़त होती है

आँसू मोती जुगनू तारा सूरज चाँद
हर क़तरे की अपनी क़िस्मत होती है