यादों के बाग़ से वो हरा-पन नहीं गया
सावन के दिन चले गए सावन नहीं गया
ठहरा था इत्तिफ़ाक़ से वो दिल में एक बार
फिर छोड़ कर कभी ये नशेमन नहीं गया
हर गुल में देखता रुख़-ए-लैला वो आँख से
अफ़्सोस क़ैस दश्त से गुलशन नहीं गया
रक्खा नहीं मुसव्विर-ए-फ़ितरत ने मू-क़लम
शह-पारा बन रहा है अभी बन नहीं गया
मैं ने ख़ुशी से की है ये तन्हाई इख़्तियार
मुझ पर लगा के वो कोई क़दग़न नहीं गया
था वा'दा शाम का मगर आए वो रात को
मैं भी किवाड़ खोलने फ़ौरन नहीं गया
दुश्मन को मैं ने प्यार से राज़ी किया 'शुऊर'
उस के मुक़ाबले के लिए तन नहीं गया
ग़ज़ल
यादों के बाग़ से वो हरा-पन नहीं गया
अनवर शऊर