याद रखना एक दिन तेरी ज़बाँ तक आऊँगा
ख़ामुशी की क़ैद से हर्फ़-ए-बयाँ तक आऊँगा
तू यक़ीं के आइने में देखना चाहेगा और
मैं फ़क़त ख़ुश-फ़हमी-ए-हद्द-ए-गुमाँ तक आऊँगा
छू के तेरे ज़ेहन के ख़ामोश तारों को कभी
ले के इक तूफ़ाँ तिरे दिल के मकाँ तक आऊँगा
फिर तिरे एहसास के शो'लों में ढल जाएगी रात
मैं उभर कर जिस घड़ी अश्क-ए-रवाँ तक आऊँगा
दस्तरस से तीर बन कर भी निकल जाऊँगा फिर
जब कभी मैं तेरे अबरू की कमाँ तक आऊँगा
सर्द आहों में सिमट कर शिद्दत-ए-एहसास से
क़ल्ब की नाज़ुक रगों के दरमियाँ तक आऊँगा
इतना मत सोचो कि ये नाज़ुक रगें फट जाएँगी
मैं तुम्हारे ज़ेहन में आख़िर कहाँ तक आऊँगा
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ग़ज़ल
याद रखना एक दिन तेरी ज़बाँ तक आऊँगा
नक़्क़ाश आबिदी