याद के शहर मिरी जाँ से गुज़र
क़ुर्ब के आख़िरी इम्काँ से गुज़र
जल बुझी थी मैं तिरे खिलने तक
अब मिरी ख़ाक-ए-परेशाँ से गुज़र
अक्स बुनने लगा सहरा तेरे
मेरे सूरज रुख़-ए-ताबाँ से गुज़र
ज़ख़्म गर मेरे हो कुछ और अता
हाँ अबस नश्तर ओ पैकाँ से गुज़र
उठ चुकीं गुल-सुख़नी की रस्में
गोश-ए-जाँ हर्फ़-ए-बहाराँ से गुज़र
आख़िरी लौ न बुझा जाए कहीं
शब-ए-जाँ में रुके मेहमाँ से गुज़र
ऐ मिरे अब्र मिरी मिट्टी की
तिश्नगी पर सर-ए-मिज़्गाँ से गुज़र
आँख अब तीरगी-ए-ग़म से बुझी
अश्क-ए-ख़ूँ जश्न-ए-चराग़ाँ से गुज़र
ग़ज़ल
याद के शहर मिरी जाँ से गुज़र
शाहिदा तबस्सुम