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याद के दरीचों में बारिशों के मंज़र हैं | शाही शायरी
yaad ke darichon mein barishon ke manzar hain

ग़ज़ल

याद के दरीचों में बारिशों के मंज़र हैं

जमशेद मसरूर

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याद के दरीचों में बारिशों के मंज़र हैं
किस नगर की बातें हैं किन रुतों के मंज़र हैं

अजनबी दयारों में शौक़-ए-दीद ले जाओ
कुछ नहीं तो हर जानिब दिलबरों के मंज़र हैं

उम्र हो गई लेकिन अब भी हैं तआ'क़ुब में
उस गली से आगे भी तितलियों के मंज़र हैं

दिल की नम ज़मीनों पर चल रहे हैं हम कब से
दूर ज़र्द पेड़ों पर आँधियों के मंज़र हैं

मैं हूँ और समुंदर है पेश-ए-साइद-ए-सीमीं
दर-पस-ए-रुख़-ए-ज़र्रीं पर्बतों के मंज़र हैं

हुस्न-ए-कम-क़बा दरिया और हुआ बरहना-पा
नक़्श आज भी दिल पर जंगलों के मंज़र हैं

क्या हर एक जानिब से चल के ख़ुद तक आया हूँ
मेरे चार-सू 'जमशेद' रास्तों के मंज़र हैं